चिन्तन

जीवन एक सतत प्रवाह है


हमारा जीवन निश्चित ही बडा विलक्षण है। वैसे ऊपर से जो दिखाई देता है, हकीकत में जीवन वैसा नहीं है। आमतौर पर हम मृत्यु को जीवन का अन्त मान लेते हैं, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो जीवन एक सतत् प्रवाह है। जो लोग लंबे समय तक योग क्रियाओं का अभ्यास कर स्वयं के भीतर प्रवेश पाने की पात्रता हासिल कर लेते हैं, वे इस बात को समझ सकते हैं कि जिसकी मृत्यु होती है, वह तो बस आवरण मात्र है।


गीता में भी भगवान कृष्ण ने देह को वस्त्र की उपमा दी है। उनके अनुसार जिस प्रकार जीर्ण वस्त्र को हम प्रायः त्याग देते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा भी शरीर के जीर्ण । होने पर उसे त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती हैअतः स्पष्ट है कि चोला बदलने मात्र से जीवात्मा की जीवन प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं आता। चंकि साधारण तौर पर लोग इस अनुभव से अनभिज्ञ रहते हैं, इसीलिए वे परिजनों के जन्म पर उत्सव और निधन पर दु:ख प्रदर्शित करते हैं।


स्मरण रहे कि आध्यात्मिक जीवन में जो गहराई में उतर जाता है, वह धीरे-धीरे जीवन की इस वास्तविकता से एक न एक दिन परिचित हो ही जाता है और तभी उसे यह ज्ञात होता है कि न तो किसी का जन्म होता है और न ही किसी की मृत्यु होती है, वरन् सिर्फ रूप बदले जाते हैं।


रूपान्तरण के इस खेल को ही 'लीला' कहा गया है। दरअसल, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही परमात्मा की लीलास्थली है और यहां पर उसकी इच्छा के अनुसार हम सबको रंगमंच पर अपना किरदार निभाना पड़ता है।


वास्तव में 'मुक्त' वही है जो इस लीला को समझकर जीवन-मृत्यु के चक्र से बाहर हो जाता है और 'बद्ध' वह है जो जन्म और मृत्यु को वास्तविक समझकर कर्मफल के अनुसार उसी में गोते लगाता रहता है।