चिन्तन

बदलते दृष्टिकोण के बदलते लक्ष्य


गरीबी और अमीरी की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यदि हम गौर करें तो गरीब, अमीर बनने की होड़ में और अमीर, और अधिक अमीर बनने की लालसा में संवेदनाओं को तिरस्कृत करता जा रहा है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के अन्दर मायामोह की जो ज्वाला धधक रही है, वह शायद ही कभी शान्त हो। यदि हम मानव जाति का इतिहास उठाकर देखें, तो हमें यह पता चल जाएगा कि मनुष्य ने भौतिक सम्पदा और ऐश्वर्य की लालसा में न केवल अपना नैतिक एवं चारित्रिक पतन किया है, वरन् वह अपने अध्यात्मिक लक्ष्य से कई बार विचलित हुआ।


जब-जब भी नेतृत्व बदलता है, तब-तब सामाजिक परिस्थितियां भी बदलने लगती हैं और उनका प्रभाव समाज के क्रियाकलापों पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है। जिन्होंने भारत के इतिहास का गंभीर रूप से अध्ययन किया होगा, उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात होगा कि जिस लक्ष्य का नेतृत्व चाणक्य के हाथ में था, उसी के बलबूते पर एक सामान्य परिवार के बेटे को सम्राट बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।


इतिहास की इस घटना को हम सामान्य नहीं कह सकते, लेकिन इसके पीछे भी सत्ता, ऐश्वर्य और संपन्नता हासिल करने की ही ललक मौजूद थी। इसके विपरीत यदि हम स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, हम यह समझ सकते हैं कि जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस अध्यात्म के प्रणेता के रूप में विद्यमान थे, तो वहीं उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द धर्म की पताका लेकर संपूर्ण विश्व में सनातन धर्म की प्राण प्रतिष्ठा करने के उद्देश्य से सक्रिय दिखाई दिए।


इससे यह ज्ञात होता है कि एक तरफ तो ऐसे लोग हैं, जो केवल सत्ता, भौतिक संपदा और समृद्धि के लिए कुछ भी करने से नहीं कतराते हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसे महापुरुष भी हैं, जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर नैतिक आदर्शों की स्थापना और धर्म की पताका को फहराने का कार्य करना ही श्रेष्ठकर समझा। ऐसे ही महान सपूतों की यह धरती ऋणी है।