महानगरीय जीवन में गहराता प्रदूषण का संकट
भारत जो कभी गांवों का देश कहलाता था, अब धीरे धीरे महानगरीय संस्कृति की ओर उन्मुख होता जा रहा है। एक तरफ स्वास्थ्यप्रद ग्रामीण जीवन सिमटता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रदूषण व जहरीली आबोहवा से भरपूर महानगरों का लगातार विकास हो रहा है। यह कोई नहीं देख रहा है कि इस अंधाधुंध वृद्धि से महानगरों के जीवन स्तर पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।
देश के महानगर एक तरह से नरक बनते जा रहे हैं, क्योंकि यहां पर प्राकृतिक संसाधनों का जिस बेरहमी से दोहन या शोषण हुआ है, उससे अब लोगों का जीना दूभर हो गया है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो चुका है कि पिछले 20 वर्षों में हमारे देश में प्रदूषण का आंकड़ा 69 प्रतिशत तक बढ़ा है, जो निश्चय ही काफी चिन्ताजनक संकेत है।
दिल्ली देश की राजधानी होने के साथ ही साथ अब प्रदूषण के मामले में भी देश में अव्वल साबित हो रही है और देश के अन्य औद्योगिक केन्द्रों यथा- मुम्बई, कोलकाता, बेंगलुरू, हैदराबाद और अहमदाबाद आदि की स्थिति भी कमोबेश इसी के आसपास दिखाई दे रही है। हर जगह सीमेंट-कांक्रीट की बहुमंजिली अट्ठालिकाएं तो नजर आती हैं, किन्तु हरियाली और प्राकृतिक सौन्दर्य को खोजना दिनप्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि देश के आधे से ज्यादा जंगल काटे जा चुके हैं।
बेतहाशा रेत खनन के कारण अनेक छोटी नदियां दम तोड़ चुकी हैं और बड़ी नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। गिट्टी, मुरम की लालच में पहाड़ के पहाड़ धराशायी हो गए हैं या कर दिए गए हैं। खेती का रकबा लगातार घट रहा है। आबादी के पास वाली खेती योग्य जमीनों पर बिल्डरों ने कॉलोनियां काट दी हैं। अब ऐसी स्थिति में पर्यावरण को बचाए तो आखिर बचाएं कैसे? ऐसा लगता है कि साक्षात् भगवान भी अगर धरती पर उतर आएं तो उनको भी इस मामले में हार ही माननी पड़ेगी।