मानव मन की चंचलता
मानव मन की चंचलता बड़ी विकट है। हमारा मन ऐसा है कि दिन के चौबीसों घंटे, बारह मास इधर-उधर भटकता रहता है। इसे संतुष्ट करना अपने आपमें एक टेढ़ी खीर है। हमें कोई वस्तु किस तरह हासिल हो, यह आसक्ति है और जो हमें प्राप्त नहीं हो पा रहा है, उसके लिए दुःख, यह मानव मन में सदा कायम रहता है। इसी के कारण तनाव, व्यथा, असंतोष एवं व्याकुलता व्याप्त रहती है।
इस स्थिति में सांसारिक दुःख, देह के रोग, मन की यातना- सभी से मनुष्य स्वयं को अत्यन्त पीड़ित महसूस करता है। इस स्थिति में उसके मन में कई तरह के भाव उत्पन्न होते हैं और वह एक तरह से विषादग्रस्त होकर निराशा के सागर में गोते लगाने लगता है, अतः इस तरह के कष्ट में उसके मन में कभी कोई प्रश्न उठता है, तो कभी उन्मुक्त गगन में चंचल मन उड़ता......उड़ता जाये कभी इधर... कभी उधर मंडराये। कोई अन्य प्रश्न उठता हैइसका तात्पर्य यह है कि वह चौबीसों घंटे उधेड़बुन में लगा रहता है और देखते ही देखते उसका सारा जीवन इसी तरह की अव्यवस्था में गुजर जाता है। हमें प्रायः जगत में नित्यसमाधान, नित्य-सुख प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष दिखाई देते हैं, पर वे कनक, कामिनी और कीर्ति का सब प्रकार से पूर्ण त्याग कर चुके होते हैं। दरअसल, सुख आसक्ति में नहीं, अनासक्ति में है। बाहरी संसार में नहीं, अन्तर्मन में है। हमारे पुराने सन्त-महात्मा बराबर यह उपदेश देते आए हैं, परन्तु मनुष्य इतना अधीर और अदूरदर्शी है कि वह इन महात्माओं एवं महापुरुषों की स्पष्ट घोषणा को भी समझने का जरा-सा भी प्रयास नहीं करता है और पथ-भ्रष्ट होकर सदा कामिनी, कनक और कीर्ति में ही सुख की खोज के लिए मारा-मारा फिरता रहता है।