संपादकीय

यह विकास कैसा, जो सर्वांगीण न हो सका


विकास की बात करना और उसका ढोल पीटना अब नए दौर के राजनीतिज्ञों का शगल बन गया है। पहले कभी रोजी-रोटी और गरीबी दूर करने की बात होती थी। रोजगार के अवसर पैदा कर, गरीबी दूर करने के संकल्प लिए जाते थे और वादे किए जाते थे- खुशहाली और सामाजिक समरसता के, किन्तु अब उनकी कोई बात ही नहीं करता। सत्ता पक्ष बस विकास का ढोल पीटता है, क्योंकि विकास एक ऐसा मुद्दा है, जिसके आंचल में तमाम दोष छिप जाते हैं।


दरअसल, विकास कोई करता नहीं, वरन् स्वतः होता रहता है। परिवर्तन तो प्रकृति का नियम ही है, अतः कोई अगर चाहे तो भी वह होने वाले परिवर्तनों को रोक नहीं सकता है। अब यह बात अलग है कि कुछ परिवर्तन सकारात्मक होते हैं, तो कुछ नकारात्मक लगते हैं, लेकिन सत्ता पक्ष के लोग सकारात्मक परिवर्तनों पर विकास की मोहर लगा देते हैं और उसको लेकर अपनी पीठ थपथपाने लगते हैं, जबकि नकारात्मक परिवर्तनों का दोष या तो विपक्ष पर थोप दिया जाता है अथवा उसे प्राकृतिक विपदा या देश का दुर्भाग्य मान लिया जाता है।


देश को आजाद हुए लगभग 72 वर्ष हो चुके हैं, तबसे लेकर आज तक हर क्षेत्र में काफी परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन किसी को विकास लग रहा है, तो किसी को कलियुग का अभिशाप लग रहा है। भौतिकवाद की चकाचौंध में बाजारवादी संस्कृति का उन्नयन भले ही नवधनाढ्यों को आकर्षित करे, किन्तु यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि इस सारे क्रियाकलाप में गरीब और अधिक गरीब तथा अमीर और अधिक अमीर हुए हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में आर्थिक संपन्नता और औद्योगिक प्रगति के अवसर बढ़े हैं, लेकिन मुश्किल से 25-30 प्रतिशत खाते-पीते लोगों की तुलना में आज भी देश की 70 प्रतिशत आबादी गरीबी, आर्थिक तंगी, बेरोजगारी और बदहाली का दंश क्यों झेल रही है, इसका जबाव किसी के पास नहीं है। क्या इसी को विकास कहते हैं? यदि यह विकास है, तो पतन क्या है?