आत्मचिन्तन

मौन साधना की महिमा


आध्यात्मिक जीवन में मौन साधना की बहुत बड़ी महिमा बताई गई है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मौन साधना को आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रमुख साधन निरूपित किया है, क्योंकि इसके माध्यम से एकाग्रता हासिल करने में काफी सहायता मिलती है।


वाणी शक्ति के संवर्धन में भी मौन साधना का बहुत बड़ा योगदान है। उल्लेखनीय है कि जब भी हमें किसी कार्य को गंभीरता के साथ एकाग्र मन:स्थिति द्वारा करना होता है तो हमें एकान्त की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में हम यह प्रयास करते हैं कि हमारे कार्य में कोई बाधा उत्पन्न न हो, ताकि हम शान्त चित्त होकर मौन धारण करते हुए अपना कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर सकें। इस तरह की मन:स्थिति के कारण ही आध्यात्मिक साधना में 'मौन व्रत' का विशेष महत्व बताया गया है।


इसमें कोई शक नहीं है कि मौन व्रत के माध्यम से ही आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत होती है, इसीलिए तो साधकों को गुरुओं द्वारा सबसे पहले अधिक से अधिक मौन रहने की सलाह दी जाती है। किसी ने सच ही कहा है कि मौन धारण के द्वारा ही एक साधक आध्यात्मिक चिन्तन की गहराइयों में उतर पाता है।


मौन की महिमा अपरंपार है। हमारे ऋषियों ने मौन धारण को इन्द्रिय संयम का एक उत्कृष्ट साधन निरूपित किया है। गौरतलब है कि महाभारत ग्रंथ के लेखन के दौरान जब कार्य संपन्न हो गया तो महर्षि व्यास ने श्री गणेशजी को धन्यवाद दिया और कहा- 'हे भगवन, मेरा बोलना तो धाराप्रवाह था, परन्तु मौन धारण कर संयमपूर्वक आपका लिखना तो उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था। यदि आपने मौन धारण न किया होता तो महाभारत ग्रंथ के लेखन का यह महती कार्य इतनी जल्दी संपन्न न हो पाता।'


अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मौन साधना का आध्यात्मिक क्षेत्र में विशिष्ट महत्व है। वास्तव में देखा जाए तो मौन साधना के परिणामस्वरूप प्राण ऊर्जा विकसित होकर इन्द्रियों को तेजस्वी बना देती हैं, इससे वाणी में ओज की उत्पत्ति होती है। वाणी का संयम साधने से इन्द्रियों का संयम भी अपने आप सध जाता है और यही मौन व्रत की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 


- हरिॐ तत्सत्