आत्मचिन्तन

जीवन जीना भी एक कला है और जिसको यह कला आती है, समझो उसी का जीवन सार्थक है। आम बोलचाल की भाषा में जिसे हम जीवन कहते हैं, वह तो क्रमिक मृत्यु है। जन्म से लेकर अंत तक हम हर क्षण मरते ही तो जाते हैं, प्रति पल मरने का यह क्रम बचपन, जवानी से लेकर बुढ़ापे तक जारी रहता है और जिस दिन प्राण पूरी तरह देह छोड़ देते हैं, हम उसी को मृत्यु मान लेते हैं, लेकिन हमारा यह दृष्टिकोण पूर्ण सत्य नहीं है।


वास्तव में देखा जाए तो जीवन वह है जो हमें मृत्यु के भय से मुक्त कर, परम मोक्ष को उपलब्ध करवा सके और यह तभी संभव है जब हम अपने वास्तविक स्वरूप को सही तरीके से पहचान सकें। अभी तक हम सभी एक तरह की बेहोशी में जी रहे हैं, क्योंकि हमें यह ही नहीं मालूम कि वास्तविक जीवन क्या है। दरअसल, हममें से अधिकांश लोग इस हाड़-मांस के ढांचे को ही अपना असली स्वरूप मान लेते हैं और शरीर के सुख-दुःख को अपना मानकर हंसते-रोते दिन गुजार देते हैं, किन्तु हकीकत यह है कि हम शरीर नहीं, वरन् आत्मा है और परमात्मा का अंश होने से ब्रह्मस्वरूप ही है, लेकिन भ्रमवश देह को अपना स्वरूप मानकर हर बार धोखा खा जाते हैं। यह शरीर तो प्रकृति के पांच तत्वों से मिलकर बना है और एक दिन उसी में विलीन हो जाता है, किन्तु आत्मा अजर-अमर है। उसका न तो कभी जन्म होता है, न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होती है। अत: हमें आत्मा के अमरत्व को ध्यान में रखते हुए देह में होने वाले परिवर्तनों को बस प्रकृति का खेल या ईश्वर की लीला समझना चाहिए और हर परिस्थिति में संतुष्ट रहने का प्रयास करना चाहिए। जिस व्यक्ति के जीवन में संतोषरूपी धन आ गया, उसका समझो बेढ़ा पार हो गया, क्योंकि संतोष के सामने सारे ऐश्वर्य फीके पड़ जाते हैं। संतोषी व्यक्ति हर परिस्थिति को ईश्वर का वरदान मानकर हर दम प्रसन्न रहता है और जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव को 'साक्षी भाव' से वहन करता है।


कहने का तात्पर्य यह है कि जिसने अपनी जीवनरूपी नैया की पतवार ही परमात्मा को सौंप दी है, फिर उसका भला कौन बाल भी बांका कर सकता है। ऐसे मुमुक्ष और वितरागी महापुरुष बिरले ही होते हैं और उन्हीं को जीवन जीने की सही कला ज्ञात होती है। यदि हम इन महापुरुषों के नक्शे-कदम पर चलते हुए थोड़ा सा भी उनका अनुकरण कर पाएं तो हमारे भी दिन बदल सकते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है।


- हरिॐ तत्सत्