आत्मचिन्तन

 


ध म का संबंध श्रद्धा और विश्वास से है। धर्म वह नहीं है जो हमें पारंपरिक रूप से अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है, बल्कि धर्म वह है जो हमने अपनी श्रद्धा एवं विश्वास से अर्जित किया धर्म के मामले में लोगों को अक्सर काफी गलतफहमियां हो जाती हैं और वे तथाकथित कर्मकांड एवं पूजन पद्धतियों को ही धर्म मान लेते हैं, किन्तु वास्तव में देखा जाए तो धर्म का स्वरूप अत्यन्त व्यापक और विस्तृत है तथा इसका सीधा संबंध हमारे हृदय से है। जब हम हृदय से किसी तथ्य को अंगीकार कर लेते हैं और एक नैतिक दायित्व के रूप में उसका अनुपालन करने लगते हैं तो वह क्रियाकलाप ही धर्म बन जाता है। धर्म के संबंध में पहले भी काफी कुछ कहा व लिखा गया है। धर्मशास्त्र की बड़ी-बड़ी पोथियों एवं ग्रंथों में नीति वाक्यों और धार्मिक आदर्शों से संबंधित तमाम उपदेश भरे पड़े हैं, लेकिन समय के साथ जिस तरह से लोगों की मानसिकता एवं दृष्टिकोणों में बदलाव आया है, उससे धर्म का स्वरूप कहीं न कहीं विकृत अवश्य हुआ है। विगत शताब्दियों में जिस तरह से साम्राज्यवादी एवं साम्प्रदायिक शक्तियों ने निजी लाभ हेतु अपने प्रभाव का विस्तार करने का प्रयास किया, उससे यथार्थ धर्म में निहित मूल भावना पर गहरा आघात हुआ है। इसी गलतफहमी के चलते लोगों ने सम्प्रदाय को ही धर्म मानना शुरू कर दिया, जबकि धर्म और सम्प्रदाय के आधार में ही बुनियादी फर्क है। आज जिसे हम धर्म कहते हैं वह साम्प्रदायिक कर्मकांडों और कुछ रुढ़िवादी विचारों से अधिक और कुछ भी नहीं है, लेकिन फिर भी विश्व के लगभग सभी सम्प्रदायों में एक तरह की संकीर्ण साम्प्रदायिक मानसिकता का विकास इस दौरान अवश्य हो गया है और इसके चलते साम्प्रदायिक तनावों को बढ़ावा मिला है। साम्प्रदायिक तनावों को बढ़ावा मिला है।


इतिहास गवाह है कि विगत सदियों में जितने लोग साम्प्रदायिक तनाव एवं जेहादी उन्माद के कारण मौत के शिकार हुए हैं, उतने तो शायद महायुद्धों में भी नहीं मरे । विकृत मानसिकता वाले उग्रवादी सम्प्रदायों ने अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा को दूसरों पर थोपने का जो बर्बर प्रयास किया, उससे धर्म के नाम पर होने वाले शोषण, उत्पीड़न एवं अत्याचारों को बढ़ावा मिला और यही इसका सबसे बड़ा दोष है। वास्तव में देखा जाए तो धर्म तोड़ता नहीं, वरन् जोड़ता है। इसमें संकीर्णता नहीं, बल्कि विस्तार होता है और यह सबको साथ लेकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्श को आत्मसात कर प्राणी मात्र के उत्थान और कल्याण के लिए सतत् सक्रिय रहता


- हरिॐ तत्सत्